How do we learn,learning and integrated technology with education

This write up is written after Integrated approach of technology in education training, about learning, multiple intelligence and ITE.


मेरा सफ़र
जहां से शुरू हुआ,
वृक्षो की हरियाली मे ,
हवा का विचरण शुरू हुआ ,
जैसा जाना ,वैसा पाया ,
वृक्षो की डाली को,
कहीं, लदी,कहीं सूखा पाया ,
कहीं वृक्ष विरल ,तो कहीं सघन पाया ,
पक्षी ऐसे चाहक रहे थे ,
जैसे मे, मे रहता था ,
पानी की धारा की हलचल ,
भी जानी पहचानी थी ,
लोगों को दुख मे व्याकुल ,
और खुशी मे हसता पाया ,
मानव संवेदनाओ मे ,मेने
कहीं न कोई परिवर्तन पाया ,
हाँ कहीं घने थे साधन ,
कहीं उनका अभाव है पाया ,
वस्त्र वही थे ,थोड़ा सा ,
बस रूप बदलता पाया ,
आस्था और विश्वास ,
हाँ , ढंग मे भिन्नता ,पर
मर्म को एक ही पाया ,
मुझको जो धरती की सीमाएं बतायीं गई थी,
पर सच मे ,उस सीमा को ,
कागज से बाहर निकाल न पाया ,
जैसी भिन्नता  मुझे ,बतलाई गई थी ,
उसको तो मे खोज न पाया ,
कहीं घटा थी ,कहीं था उजला ,
वही आकाश को हर जगह पाया ,
कितनी भिन्नता मुझे बतलाई गई थी ,
कितने हिस्से ,कितनी सीमा ,
पर जो मेने देखा ,
एक ही धरती ,एक प्रकर्ति ,
एक गगन ,एक ही मानव
मे तो इसमे भिन्नता ढूंढ न पाया








                              Journey by train

सफर का एक बड़ा भाग तो रेल में गुजरा , 8 राज्यो को तय करते हुए देवभूमि द्वारका से कोलकाता  पहुंचे । समय को व्यतीत करने के लिए शुक्र है हमारे पास स्मार्ट फोन है , सबसे ज्यादा इसी के साथ सभी ने वक्त गुजारा ,इसमे भी सबसे जायदा व्हाट्स एप के साथ , फिर  गीत –संगीत ,fb ,कुछ समय बचा तो घरवालों से बातचीत । आपस में भी बाते हो पाई क्योंकि वक्त ज्यादा था , सब कुछ कर लेने के बाद भी खाली –खाली ......समय बिताने का दूसरा सबसे बेहतरीन तरीका जो कभी पहला हुआ करता था –सोना ,जी भर सोये भी सब।
शाम को एक दिन कुछ माथा-पच्ची भी की ,ये जो जूझकर सही उत्तर बता देने का मजा है न इससे ज्यादा आनंद किसी और चीज में नहीं आ सकता । हम इन्सानो को कुछ नया जानने ,नया सीखने में आरंभ से ही एक विशेष कोतूहल रहा है , सीखने के परमानंद के सामने सारे भौतिक लालच छोटे पड़ जाते हैं। सवाल दर सवाल आते गए ,सब लुफ्त लेते गए –कुछ सवाल को समझने में ही रेह गए, कुछ जबाब के इधर-उधर भटके ,कुछ ने  जबाब पाया भी , कुछ झलकियाँ सवालो की –
1.      हुमायूँ अकबर के बाप का क्या था ?
2.      वेस्ट बंगाल तो भारत के ईस्ट में है ,तो उसका नाम वेस्ट बंगाल क्यूँ है ?
3.      एक 80 km /hr से चलने वाली ट्रेन ,दूसरी 60 km /hr से चलने वाली, एक दिल्ली से चली ,दूसरी जयपुर से , दोनों बीच में कहीं मिली ,जिस बिन्दु पर मिली ,वहाँ से कौन सी ट्रेन जयपुर के ज्यादा नजदीक होगी ?
4.      एक वर्गाकार पार्क की एक भुजा को चलने मे 1 hr 20 min लगे ,दूसरी को भी यही समय लगा ,तीसरी को भी यही समय लगा ,पर चौथी भुजा को पार करने में 80 min लगे ,ऐसा क्यूँ ?
5.      आप एक बस चला रहे है , बस में 20 साल के तीन आदमी , 35 साल के 5 व्यक्ति , 50 साल के 2 व्यक्ति है , तो आपकी उम्र क्या होगी ?
6.      जालंदर जल मे खड़ा है , कुछ समय बाद वो पेड़ पर चढ़ गया ,अब उसका नाम क्या है ?
7.      एक तराजू के एक पलड़े में 1 किलो  रुई रक्खी है ,दूसरे पलड़े में 1 किलो लोहे का समान ,किस तरफ का पलड़ा नीचे झुकेगा ?
इसी तरह के कुछ प्रश्न ।   
बात समय काटने की हो , और वहाँ अंतराक्षरी न हो- ऐसा हो ही नहीं सकता था , कुछ अच्छे कंठ वाले थे –कम ही थे, बाकी हिम्मत वाले थे ,सुर कैसा भी हो गा रहे थे , एक –दो ऐसे भी थे जिन्हे  गाने से परहेज था । इतना समय था कूल आने –जाने के मिलकर ट्रेन में ....घंटे , खूब गाने गाये , गुजराती गाने भी ,शब्द चुराने वाली अंतराक्षी भी खेली गई पर सबसे ज्यादा तो दम –सरास में मजा आया , ऐसा इसका नाम क्यूँ है ,अजीब सा विदेशी खेल लगता है , इसमें फिल्म के नाम को बिना कहे अपनी टीम को बताना होता है । जो भी कुछ ट्रेनिंग में सीखा था इस खेल में उसका डेमो दिखाई दिया , कमर पर हाथ रखकर दूसरा हाथ की हथेली  दिखाते ही अमिताभ को पहचानना , कितने शब्दो की फिल्म है यह पता  चलने से सिर्फ उन्ही फिल्मों के नाम जेहन में आना , फिल्म पूछ कौन रहा है –इसी से फिल्म के नाम तक पहुँच जाना , इन सबमे हम अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर सूचनाओं के समंदर से सही मोती निकाल पा  रहे थे , बिलकुल हमारे दिमाग के काम करने के तरीके की तरह , कई स्कीमाओं में से तुरंत अर्थ पूर्ण को चुन लेना , assimilation से उत्तर तक पहुँचना ,कभी –कभी नए इशारो –जटिल नामो वाली फिल्मों के लिए accommodation भी हो रहा था , जैसे once upon time इन Mumbai को समझने में , पहले कभी ना सुने नाम को भी अन्य ज्ञात सूचनाओं से पता लगा लिया था जैसे – यशवंत लोहार । दिमाग का इस्तेमाल इस खेल में ज्यादा हुआ तो मजा भी ज्यादा आया , मजा चुनोतीपूर्ण सीखने के समानुपाती दिख रहा है , अपनी कक्षाओं में भी रोज बोर्ड पर कुछ सवाल लिख देने ,उन्हे जांच देने या फिर कुछ कठिनाई के स्तर बढ़ाते हुए सवाल देने वो भी नए –नए तरीको से –विचार करे किस में ज्यादा मजा /आनंद आएगा?
16 पर्ची थप ,संगीत की धुन से गाना पकड़ना  जैसे खेल भी खेले पर हमें सबसे ज्यादा कौन सा खेल भाया और क्यूँ ?  
किताबे भी पढ़ी गयी,इनसे अपेक्षाएँ कुछ ज्यादा ही थी पर बड़ा स्कोर ना सही ,खाता खोलने में कामयाब हो गई । तोतो चान , दिवास्वपन के साथ –साथ Tuesdays  with Morrie और वॉट इज mathematics आदि । गुजराती बोर्ड की गणित व विज्ञान की किताबों को सरसरी तौर पर देख लिया गया की क्या -क्या विषय से भरी हुई हैं ये ।  मेरे पास पता नहीं कैसे समय कुछ ज्याद ही था ,इसीलिए 5 मूवी भी देख ली – the game , इटिलियन जॉब , ocean ब्लू , ट्रेप व हिन्दी medium


                         
                       
                                 लर्निंग
हमें ट्रेनिंग के दोरान बताया गया था की ज्ञान अन्तर्जात (innate) होता है ( हम उसके साथ ही पैदा होते हैं ) और सीखना उस बात को दोबारा याद भर कर लेना है ।  लेकिन  बड़ा सवाल यह है  की आखिर पूर्व ज्ञान आता कहाँ से है । उसे अन्तर्जात मान लेना एक खयाली पुलाव तो नहीं । रचनात्मकता के सिद्दांत को सुनकर क्या ये प्रश्न हमारे मन में नहीं आता ?
 कुछ लोग जो ये मानते हैं की शिशु इस दुनिया में एक ऐसे दिमाग के साथ आता है जिसमें कुछ भी नहीं भरा  होता ,वह तो “खाली घड़े “ या कोरे कागज “ (ब्लैंक स्लेट) की तरह होता है। इनका ये भी मानना है  की पेचीदा विचार ,सरल विचारो से मिल कर बने होते हैं और उनमें धीरे धीरे बढ़ोतरी होती रहती है।  
और व्यवहारवादी वो भी तो सीखने के बारे में अपनी राय रखते है  जैसे कुत्ते वाला उदाहरण ,जब भी कुत्तो को खाना खिलाया जाता था तब वे लार बहाने लगते थे। यहाँ तक की खाने को देखते ही उनकी लार बहने लगती थी । अगर कुत्तो को खाना देने के साथ ही घंटी बजाई ,और इस पिर्क्रिया को कई बार दोहराया तो कुछ दिनों बाद कुत्ते सिर्फ घंटी की आवाज सुनकर ही लार बहाने लगते थे । इस प्राक्रतिक अनुक्रिया में एक नया उद्दिपन्न (घंटी) प्राक्रतिक उददीपन  (खाना) के साथ जुड़ जाता है और आखिरकार वह अपने बूते पर मूल प्राकृत्रिक अनुक्रिया  (लार बहाना ) पैदा करवाने में कामयाब हो जाता है ।
1- प्रकृतिक उद्दीपक (स्टिमुलुस) (खाना) ------------ अनुक्रिया (response) (लार बहाना)
2- प्रकृतिक उद्दीपक (स्टिमुलुस) (खाना) और अनुबंधित (conditional) उद्दीपक (घंटी) ------ अनुक्रिया (लार बहाना)
3- और आखिरकार अनुबंधित उद्दीपक (घंटी) ---------- अनुक्रिया (लार बहाना)
इन सबसे सीखने के बारे में क्या पता चल रहा है ,क्या ये सब जान लेने से हमारे पढ़ाने /सिखाने में कुछ फर्क आएगा –इन सवालो को अब तो एक बार अपने जेहन से गुजरने दे।
एक और महत्वपूर्ण चर्चा हुई थी पियाजे (रचनात्मकता वाद) की ।पियाजे  के अनुसार  सोचने व सीखने की इंसानी काबिलियत एक समायोजित (adaptive )यानि सीखी  हुई खासीयत  है – इसका जैविक कार्य  व्यक्तियों की अपने आसपास के पर्यावरण के साथ सार्थक तरीके से तालमेल बिठाने में मदद करना है । उन्होने इस बात को पहचाना की बच्चे दुनिया में कुछ पैदायशी अनुक्रियाओं(reflexes ) के साथ आते हैं । दुनिया को अनुभव करने व उसके साथ अंतक्रिया करने के दोरान ये अनुक्रियाएं संगयानतमक  ढांचो के रूप में विकसित हो जाती है । अपने अवलोकनों और अलग अलग उम्र के बच्चो के लिए गढ़ी गई समस्याओं के आधार पर पियाजे ने यह स्थापना रक्खी की संगयांतमक ढांचो का विकास स्तरो (developmental stages ) में होता है । बच्चा दुनिया में चीजों के साथ खेलता है ,उसका अनुभव करता है और उनसे अपने लिए मतलब गढ़ता है ।     
इससे आगे भी यह बात बढ़ती है यहाँ उसकी चर्चा नहीं हुई थी ,पर कुछ तो आगे कहा गया है उसको जानना भी जरूरी है ,जैसे एक मत के अनुसार (व्यगोट्सकि)) ज्ञान के सभी निकाय (body ऑफ knowledge )सामाजिक उत्पाद है और वे सामाजिक पिर्क्रियाओं जैसे विमर्श ,तर्क ,वाद-विवाद  और आलोचना  आदि का इस्तेमाल करते हैं ।   मतलब अध्यापक /हम जो भी चीज ज्ञान के तौर पर सिखाते हैं वह सामाजिक तौर पर तय की जाती है ।
अगर पियाजे के स्वनिर्मित स्कीमा से तुलना की जाये तो व्यगोट्सकि इस बात पर ज़ोर देते हैं की ज्यादतर हम जो सीखते हैं वह दूसरों की मदद से सीखते है। दूसरों से जो भी हम सीखते हैं उसमें से ज़्यादातर भाषा की मदद से सीखते हैं ,जो इंसानी समाज द्वारा विकसित किया गया मनोवेज्ञानिक औज़ार  है । जैसे जैसे सीखना ज्यादा से ज्यादा अमूर्त होता जाता है भाषा और प्रतीको जैसे औजारों की भूमिका बढ़ती जाती है।
इस सारी बातचीत को हम प्राथमिक कक्षा के सीखने –सिखाने से जोड़ सकते हैं , हम ढेर सारी गतिविधियां ,टीएलएम (सहायक सामग्री ) का प्रयोग करते हैं ,जैसे –जैसे स्तर बढ़ता है हम टीएलएम का उपयोग कम करने लगते है । (मूर्त से अमूर्त की ओर ) जैसे गणित में संख्या ज्ञान से शुरू करना (सहायक सामग्री की बहुलता है ) व लाभ –हानी को समझाना (सहायक सामग्री न्यूनतम होती जाती है ) ( आगमन से निगमन की तरफ बढ़ रहे होते है। )  बच्चे के पूर्व ज्ञान को आधार बनाकर उसे नयी अवधारनाएं सीखने में मदद करते हैं । यहाँ शिक्षक की भूमिका एक सह यात्री की है सीखने की यात्रा में । ऊपर जिन सिंदांतों का जिक्र हुआ है उनमे से कोई एक पूरी तरह से सर्वथा सत्य नहीं है ,चाहे वह हमारे बीच में कितना भी लोकप्रिय क्यूँ ना हो ! प्रतेयक की अपनी शर्ते , आलोचनाएँ व सीमाएं हैं । इन सबको जान लेने से हम अपनी शिक्षण आवश्यकताओं को और माकूल बना सकते हैं ताकि सीखना और सार्थक और मजेदार हो जाये।




Howard Gardner’s Multiple Intelligence

हममे से बहुत से लोग यह नहीं मानते कि बुद्धिमत्ता किसी एक खास प्रकार कि दक्षता का नाम है । हावर्ड गार्डनर के बहु – बुद्धिमत्ता सिद्धान्त के अनुसार हम सब में विभिन्न किस्म कि बुद्धिमत्ताओं के भिन्न –भिन्न स्तर होते हैं –अत: प्रत्येक व्यक्ति कि मज़बूतियों  व कमजोरियों कि अपना निजी रूप (प्रोफ़ाइल ) होता है, और शिक्षा को इन सभी को आनुपातिक रूप से पोषित करने कि चेष्टा करनी चाहिए । हावर्ड गार्डनर के अनुसार सात बुद्धिमत्ता निम्न है - 
1.    भाषाई (linguistic जैसे तेजी से नए अर्थ को पकड़ना )
2.    सामाजिक ( social जैसे दूसरों की भावनाओं को समझना )
3.    व्यतिगत (personal जैसे निजी मंशाओं को समझना )
4.    शारीरिक –गतिविधिक (bodily – kinaesthetic जैसे नृत्य या व्यायामी क्रियाएँ )
5.    सांगीतिक (म्यूज़िकल जैसे स्वर के प्रति संवेदनशील होना)
6.    तार्किक –गणितीय ( logical जैसे अमूर्त विवेचन )
7.    स्थानिक ( spatial जैसे देखी हुई वस्तु का मानसिक रूपान्तरण )
गार्डनर ने दो और प्रतिभाओं को इस सूची में शामिल किया है – प्रकर्ति ज्ञान आधारित प्रतिभा और आध्यात्मिक क्षेत्र में विशेष प्रतिभा ।
ये सब जान लेने से क्या होगा – शायद हमारा ध्यान इस ओर जाये की बुद्धिमत्ता को किसी एक प्रतिभा के आधार पर देखना उचित नहीं है । उदाहरण के तौर पर गणित में धीमी प्रगति करता हुआ बच्चे को कमजोर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि हो सकता है की उसका ध्यान अभी खेल, संगीत अथवा प्रकर्ति के अध्यन में लगा हो और इनमे बच्चा अच्छा कर रहा हो । इससे हम बच्चो की विभिन्न योग्यताओं पर ध्यान देंगे और उनके प्रति अधिक संवेदनशील होंगे। पूर्वाग्रहों को छोड़ पाना एक सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी , हमने lesson plan की marking करते हुए यह देखा भी था की केवल किसी के नाम के आधार पर उसकी पूर्व योग्यताओं से प्रभावित होकर सभी ने गलत मार्क्स दिये थे।





                              CONCLUSION  

  ITE –Integrated approach to technology in education, using technology in learning (blend of content, pedagogy and knowledge)
 (Bloom's Taxonomy was created in 1956 under the leadership of educational psychologist Dr Benjamin Bloom in order to promote higher forms of thinking in education, such as analyzing and evaluating concepts, processes, procedures, and principles, rather than just remembering facts (rote learning).
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ITE को एक टूल की तरह लेना है, पर ध्यान रहे remembering understanding के लिए हम इसका उपयोग नहीं करेंगे, ITE का उपयोग हम apply, analysis, create   करने की क्षमताओं को विकसित करने के लिए करेंगे। ITE का जलवा हमने स्कूल visits के दरम्यान देखा की बच्चे कैसे उत्साह से सीखने में भागीदारी कर रहे थे।हमें क्या अच्छा लगा जब बच्चे प्रश्नो से डरने के बजाए उन्हे गूगल पर सर्च कर रहे थे, confidently हमें जबाब दे रहे  थे, अपने बनाए प्रोजेक्ट को अच्छे से प्रस्तुत कर रहे थे ।  ये सारी ऊर्जा व क्षमताओं को हमें अपने यहाँ के बच्चों तक पहुंचाना है या यूं कहे उनकी मदद करनी है सीखने की कभी ना खत्म होने वाली यात्रा में । जो असमंजस हमारे बीच था की जो बेस लाइन हमने ली है उसके अनुसार तो हमारे यहाँ के बच्चे बुनियादी दक्षताओं (पढ़ना,लिखना आदि )में भी खरे नहीं उतरते ITE के प्रोजेक्ट कैसे करेंगे ? पर स्कूल visits के बाद कुछ हौसला बढ़ा दिखाई दिया और इसी की जरूरत भी है ,सीखने के बारे में इतना जानने के बाद हमें अवसर तलाशने हैं , देने हैं –क्योंकि ज्ञान निर्माण पिर्क्रिया में हमारी भूमिका यही होगी।

यदि हम  सीखने के रचनात्मकता वाद यकीन रखते हैं तो हमे अपने सीखने व सीखने के तरीके में वैसे ही बदलाव लाना होगा जैसे हम अवधारनाओं के बनने मे बच्चे के पूर्व ज्ञान की सहायता से उसकी नए ज्ञान को अर्जित करने में मदद कर रहे होंगे। हमें दिमाग के assimilation ,accommodation schema के नजरिए को ध्यान में रखते हुए शिक्षण करना होगा ।
हमारे प्रश्न सिर्फ याद कर लेने , समझ बना लेने तक सीमित ना होकर अवधारनाओं के अनुप्रयोग , विश्लेषेण व रचनात्मक कार्य करने की ओर ले जा रहे होंगे । जैसे समान्यत : प्रश्न किसी कहानी पर आधारित हैं तो होते हैं – कहानी क्या थी ?, कौन -कौन पत्र थे ?इससे हमे क्या शिक्षा मिलती है ?
आदि । अब हमे अपने प्रश्नो के आयामो को बढ़ाना होगा – जैसे यदि कहानी का अंत कुछ और भी हो सकता था क्या ? यदि X पात्र की जगह Y आ जाये तो कहानी क्या हो जाएगी ? एक घटनाक्रम के अनुसार नयी कहानी बनाओ ?
हमारे साथ समस्या यह है की हम खुद इस तरह से नहीं पढे, पर शिक्षा में गुणवत्ता की कवायद को लेकर हमने यह तय तो कर लिया की एक परिवर्तन की जरूरत है , हमें समय- समय पर नए –नए शिक्षण विधाओ से परिचय भी कराया जा रहा है –पर असल चुनौती तो इसे आत्मसात  करने की है , परिवर्तन की शुरुआत खुद से ही करनी होगी , खुद के द्रष्टि कोण को पुन: परखना है ,नए आयामो को समाहित करना है । यह एक जटिल मसला है पर इंसानी इच्छा शक्ति के आगे बौना ।
करना क्या है सीखने के लिए तैयार रहना है । हमे  विषय की समझ, विषय के शिक्षण विधा की समझ व सबसे जरूरी शिक्षा के परीप्रेक्ष्य की समझ विकसित करनी होगी।
अच्छे प्रश्न पूछना की कला सिखनी होगी , हमने ट्रेनिंग के दरम्यान ये देखा की हमारे प्रश्न remembering व अण्डरस्टैंडिंग के पार नहीं जा पा रहे हैं ,मुद्दा यही है की क्या आपकी स्व प्रेरणा इतनी सशक्त है जो यह सफर तय कर सकती है क्यूंकी सीखने के सिद्धांत में हमने देखा की कोई किसी के दिमाग में ज्ञान को भर नहीं सकता है , बल्कि सिखाने वाला सीखने वाले के ज्ञान निर्माण प्रिक्रिया में सहयोग कर सकता है ।


बच्चा
बस जी रहा होता है ,
कुछ जो बटोरा है उसने अपने महोल से ,
उसी को लोटाने की अधूरी कोशिश
प्रेम ,ईर्ष्या ,द्वेष ,राग विराग
सभी में थोड़ी बचपने की मिलावट कर देता है ,
भा जाता है सभी को ,पर कितने रखते हैं सज़ों कर बचपन को ,
फिर  बस तारीफ के कसीदे तो पढ़ते हैं,पर कतराते हैं बचपन को समेटने से,
                   अनायास या सायास
                   बच्चा सीखता है ,अवलोकन से ,
                   अंत:क्रिया से
                   बनता है अपने समाज का प्रतिनिधि ,
                   वो जो उसकी मिलावट होती है ,
                   वही कारक है सतत परिवर्तन का ,

तो दे दें ऐसा मसाला ,
जिससे गढ़ सके
एक स्व्पनिल समाज
जिसमे ,
न्याय हो,समानता हो
मानवता हो ,सततता हो,

                   पर ये तो तब होगा ,
                   जब हम देंगे इसके अवसर बच्चो को ,
                  फिर गढ़ते हैं खुद को ,
                  गढ़ने को और बेहतर ,
                  की जब बचपन मिले इसमें
                  इस बार मायूसी ना हो।


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