मे आई कम इन ,सर
मे
आई कम इन ,सर
आज सवेरे में राजपरा स्कूल
में प्रेवेश् करते समय कुछ बच्चे जो स्कूल ही जा रहे थे , मैं बाइक पर था
और वो पैदल स्कूल की तरफ बढ़ रहे थे, एक बच्चा मुझे देखकर हर्ष के साथ बोला
– मे आई कम इन, सर . मेरे और उसके बीच गति
ज्यादा होने पर मैं केवल उसे अधुरा देखकर अधुरा मुस्करा सका. मैं आगे चलकर और तेज
मुस्कराया ये सोच कर की इस बच्चे ने मुझे गुड मोर्निंग ना बोलकर मे आई कम इन क्यूँ
बोला, ये मुस्कान नहीं थी ,ये तो उस बच्चे के अंग्रेजी भाषा के
अल्प ज्ञान पर हँसी उड़ाने जैसा था .
यूँ तो ये घटना सामान्य सी प्रतीत हो रही है पर दो बातों ने मुझे
बहुत देर तक घेरे रक्खा जब तक मैंने इन बातों को यहाँ लिख नहीं दिया . एक तो यह की
सभी तो एक दुसरे से जब मिलते है तो गुड मोर्निंग , नमस्ते ,सलाम
अगेरेह -वगेरेह बोलते नहीं है कोई राम -राम बोल कर खुश होता है तो कोई जय द्वारकाधीश ,कोई
जय श्री कृष्णा बोलता है तो कोई जय साईं
नाथ और कोई जय बांके बिहारी ,जय बाकोल ,बजरंग वाली की
जय ,जय माता दी . इस अभिवादन को
सभी अपने हिसाब से उपयोग करते हैं ,कुछ लोग तो बिना बोले ही मुंडी हिला
देते हैं ,कुछ धीरे से मुस्करा देते है , हाथ हिलाने और
मिलाने का चलन भी जोरों पर हैं, फुरसतिया लोग तो गले मिलकर एक दुसरे
का स्वागत -सत्कार करते हैं.
अपना -अपना तकिया कलाम या जुमला भी तो लोग बना ही लेते है ,
ऐसे में कुछ लोग जय हिन्द भी इसी जगह उपयोग में लाते है तो कुछ लोग वन्दे मातरम तो कुछ जय भीम . इन सबको सोचकर मुझे उस बच्चे का
मे आई कम इन अटपटा नहीं लगता . उस बच्चे की टाइमिंग ,भाव दोनों खरे
थे जो बोले गए शब्दों से ज्यादा वजनी हो जाते हैं . उसे अभिवादन का सलीका था और
उसने इसमें एक नवाचार करने की कोशिश की ,कुछ और इसको बोलने लगे तो ये पक्का धार पकड़ लेगा . मुझे
उसके मे आई कम इन में इतनी दिक्कत नजर नहीं आती , जब हम बिना
अर्थ पर ध्यान दिए बाकी सब बोलते है और
उसके अर्थ के विपरीत आचरण भी करते है जैसे जय हिन्द बोलने वाला हिन्द के प्रति कितना
समप्रित होते हैं तो सैनिको को छोड़कर अपने सम्मानीय नेता गन व् अन्य गणमान्य जनों पर
विचार कर लें, राम -राम आदि बोलने वालों को समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त सभी
के परिवेश में होंगे. फिर बच्चा अगर मे आई कम इन कहकर अभिवादन कर रहा है तो ये
ज्यादा उचित जान पड़ता है क्यूंकि यहाँ कोई फालतू मुखोटा तो चेहरे पर नहीं चढ़ता
जैसा जय द्वारकाधीश या वन्दे मातरम कहने से चढ़ जाता है . मुझे तो इस बच्चे का
व्यवहार गहन दार्शनिक प्रतीत होता है .
दूसरी बात ये की क्या मैं तथाकथित समझदार होने लगा हूँ, जो
व्यर्थ में अपने ज्ञान को कहीं भी उड़ेल देते हैं जहाँ उसकी जरूरत हो भी या नहीं .
दूसरो में मीन मेख निकालकर अपने को संतोष मिले/अच्छा लगे तो आपके ज्ञान की दिशा
बहक गई है ,इस पर हम चाहें कितना तर्क गढ़ ले जैसे समय पर गलती बता देनी चाहिये ,
बड़ो की जिम्मेदारी होती है छोटो को ठीक करें , गलत को गलत ना
कहना उसका समर्थन करने जैसा है , पर ये सब बाते खोटी जान पड़ती है .
बच्चा मे आई कम इन बोलकर मुस्करा रहा था , उसे उस समय टोकना उसके अभिवादन करने की
आदत पर हमला होता और ज्यादा सम्भावना इसी की होती की वो चुप रहना ही चुनता . बच्चे
ज्यादा ज्ञान देने वालों से किनारा करने लगते हैं , कही ऐसा हो
जाता तो फिर वो अन्य बातों को भी हल्के में ही निकाल देता. अंग्रेजी के पांच शब्द
बोलना उस बच्चे के लिए काफी अहमियत वाली बात थी , उसके साहस व्
विशवास को नमन करना चाहिए ,अगर आज मैं उसे टोक देता तो ये पांच
शब्द ना जाने कितने लम्बे रस्ते की ओर उसे ले जायेंगे ,मैं उस रास्ते
पर गिरे भारी -भरकम पेड़ के समान होता . मेरे मुस्कराना उस समय सबसे सटीक जबाब था , पर
उसके बाद उस बालक पर व्यंग में मुस्कराना मेरे लिए एक चेतावनी है की मैं अपने
अन्दर से समझदारी को निकालकर समझदारी का चोला पहनने को आतुर हो रहा हूँ.
ऐसा करके सभ्य समाज के सभ्य लोग तो मुझे समझदार मान लेंगे पर मेरा आइना इस बात से इंकार करने लगेगा . ऐसे में व्यक्ति ना तो मुखोटा हटाने की
हिम्मत कर पाता है और ना ही वास्तिवकता को स्वीकारने की , और ये नकली
पहचान नकली होकर भी असली मान ली जाती है .
गलती सुधारने की जल्दबाजी गलती करना बंद करवा देती हैं , जो
सिखने के वृक्ष की जड़ो पर हमला करने जैसा है . उस बच्चे को सहृदय धन्यवाद करता हूँ
जिसने मुझे सोचने का अवसर दिया , और मेरे इन्सान होने के अहसास को
जिन्दा रक्खा क्यूंकि सोचना -समझना इन्सान होने की बुनियादी शर्त हैं .
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