sardi "The Winter"

ठण्ड ,
कपकपाती सर्द हवा,
visibility भी कहीं खो रही थी,
बाह्य से अंतर तक ,
सर्दी फ़ैल चुकी थी,
फिर भी,
जब में निकला ,
इसको छूने , इसको महसूस करने,
 में भ्रम में था, या फिर अपनी ,
कल्पना  में,

नित्य भांति उनका तनिक न बदला ,
सर्दी तो स्रंग्रिका थी उनके सोंदर्य का ,
वो अविचलित, खुद मशीन से ,
मशीनों पर काम कर रहे थे,
अन्दर गर्माहट थी,
पर मुझे कोई अलाव दिखाई न दिया,
 लपटें तो मैंने भी महसूस की,
 पर जो जल रहा था ,
इन मिथ्या नत्रों से में देख न पाया,
 पे रुका थोड़ा ठहेरा ,
सर्दी का अस्तित्व कहाँ?
 मेरा रोम - रोम ज्वलित हुआ,
 कहाँ टिक पाया उस प्रचंड,
 अनल के आगे ,
बाहर आ फिर थोड़ा ,
सचेत हुआ,

अन्दर,
सत्य की अंगीठी पर,
सदभाव , परस्पर उदभाव,
निष्ठा , मानवीय  संवेदनाएं ,
और खुद मानवता ........
हाँ, और कौन , 
इस मौसम के प्रोकोप से ,
मानव को बचाता ,
ये सब तो कब की मर गयी थी ,
अब इनकी चिता की गर्मी से,
मानव खुद श्रस्थ्ता के दंभ को जीता है, 

पर अग्नि तो अग्नि है, 
मंद कभी , विकराल कभी, 
अनंत शांत हो जाना है ,

क्यूँ न देख रहीं, हे मनुज
तेरी द्रस्ती इसको,
क्या तुझको  भी उस अग्नि संग ,
अस्तित्व विहीन हो जाना है,

पर जब में बाहर कुछ दूर चला,
 दांतों, की चिल- मिलाहट को,
मानव तन की जुन्झालाहट को.,
प्रकर्ति को घूरे ,    व्याकुल,
उन आँखों को ,
अदभूत जवान संघहर्ष उनका ,
एक टक,- टक-टक देख रहे थे , 
मै समझा उनकी चिल्लाहट को, 
एक दफा ही पलकें मिलनी अब, 
रक्त प्रबाह शिथिल , प्राण- अग्नि ,
भी धुआं हुई अब,
क्यूँ?
मानव, मानव  से सर्दी ,
ने छल युक्त व्यबहार  किया ?

एक और जीवित और एक और नामित रूप लिया,
 पर वो भी, फिर भी , जिन्दा थे,
प्रेम अग्नि, मानवता 
और
सत्य की ज्वाला 
     और,
वो खुद अग्नि संग अग्नि बन !
वो शर्स्ती की डोर को थामे है,
और अनंता ,
श्रस्ती जीवन्त है.

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