योग -योग का इतिहास व् योग का अर्थ आज के यतार्थ में
ह्यूमन बीइंग –इन्सान लगातार अपनी समझ ,ज्ञान ,क्षमताएं बढ़ा रहा है , हम सबसे ज्यादा ताकतवर है –जब हम देखते हैं पिछले मानव इतिहास को ,पर हमें इस पॉवर से करना क्या है – इसका जबाब किसी के पास नहीं है . हम सेल्फ मेड गॉड हो गए हैं ,जो किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं है .
क्या इससे भी ज्यादा कुछ खतरनाक हो सकता है की एक गैर –जिम्मेदार ,असंतुष्ट
मानव जिसने गॉड के समान पॉवर तो हासिल कर
ली हैं – पर वो खुद नहीं जानता की वो चाहता क्या है ?
ये सवाल जरूर फिलिसोफिकल हैं , हजारों सालों से अलग –अलग तरीकों से
इन पर विचार क्या गया है , पर आज इन सवालों के जबाब तलाशना सबसे ज्यादा जरूरी हो गया
है .
तारीखों से हमने ये पाया है की – लम्हों ने खता की है , सदियों ने
सजा पायी .
फ्रेंड्स मैं हूँ विकास और आज मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूँ –एक जबाब
–ऐसे सवालों का , यूँ भी कह सकते हैं की एक सवाल जो आपको सोचने को मजबूर करेगा और
आप भी तलाश शुरू कर दोगे, और मिलकर हम हमेशा जीततें हैं , तो बने रहिये मेरे साथ
वीडियो के आखिर तक –एक संभावित जबाब की परते पलटते हैं , सबसे पहला काम – चैनल को
कर लीजिये सब्सक्राइब और चर्चा में शामिल
होकर इसे मीनिंग फुल बनायें और जिन्दा रखें .
योग – हिन्दू दर्शन के 6 मेजर स्कूल में से एक है , सांख्य फिलोसोफी
के बहुत ज्यादा निकट हैं , इसका इतिहास को जानना भारत के इतिहास को जानने के समान
है , लगभग ६००० सालों के यात्रा में जो प्रमाण मिलते हैं –उन्ही को आधार बना कर इस
पर कुछ समझ बनाई है – कपिल का सांख्य दर्शन और पतंन्जली को योग दर्शन हमारे सवालों
के जबाब देने का प्रयास करतें हैं , पतंजली नाग जनजाति से थे और उन्होंने तीन
किताबों की रचना की – योगसूत्र ,महाभाष्य और आर्युवेद सहिंता – योगसूत्र चित्त के ,महाभाष्य
भाषा के और आयुर्वेद संहिता शरीर के विकारों को दूर करने को लिखी गईं हैं , ये तीन
शास्त्र पतंजली को एक अद्भुत मानव ,ज्ञानी होने के प्रमाण हैं. इनका जीवनकाल दूसरी सदी व् पुष्यमित्र शुंग के समय का माना जाता है , योग
पतंजली से भी पुराना है.
जहाँ एक और ब्रहमांड को जानने के लिए माइक्रोस्कोप और टेलिस्कोप से जानकारी
जुटाई जा रही थी ,वहीँ योग दर्शन के अनुसार ब्रहमांड में जो कुछ भी है ,वो हमारे
शरीर में है , इसलिए हमने इसको जानने ,समझने की जरूरत है , इसके लिए माइक्रोस्कोप
या टेलिस्कोप की कोई जरूरत नहीं है . इसे जानने का जो रास्ता बताया गया है –वही
योग है . मन की शांति या चित्त की शान्ति
की जिस तलाश में दुनिया भटक रही है उसी का एक माकूल जबाब है योग . चित्त वृतियों
का निरोध ही योग है . दुःख ,बुढ़ापा , मृत्यु आदि ऐसे तमाम सवालों के हल खोजने की
एक ईमानदार कोशिश है –योग, इसका धर्म व् आस्था से वास्ता न के बराबर है . योग इश्वर
को नहीं मानता है ,इश्वर को मानने के लिए आस्था की जरूरत होती है पर योग तो पूरी
तरह अनुभव किया जा सकता है व् प्रयोग पर आधारित है.
जितना एकाग्र आपका चित्त होगा आपकी द्रष्टि भी उतनी स्पष्ट होगी ,
चित्त को एकाग्र करने के विज्ञान को ही योग कहा जाता है . बोद्ध धर्म के अनुसार
जीवन हैं तो दुःख है , दुखों का कारण इच्छा है और इच्छा पर मन के एकाग्रता से ही
काबू पाया जा सकता है ,जो की दुर्लभ कार्य है और इस कार्य को सरल बनाने का साधन
योग है.
पतंज्ल्ली के योग सूत्र के चार अध्याय हैं – समाधिपाद ,साधनपाद,विभुतिपाद
,केवल्यापाद . नए व्यक्ति को साधनपाद से शुरू करने की सलाह दी जाति है , जो आसन करके
आप और हम समझते हैं की हमने योग कर लिए वो तो केवल दुसरे अध्याय को पूरा करना भी
नहीं है . इसमें यम ,नियम ,आसन ,प्राणायाम ,प्रत्याहार ,धारणा,ध्यान और समाधी आते हैं ,तो आसन को ही केवल योग मानने
की भूल ना करें ,आसन तो दुसरे अध्याय के आठ भाग में से एक है . 5 यम हैं और 5 ही
नियम हैं ,
योग की जड़े जुड़ी हैं सांख्य दर्शन से , इसके अनुसार
इस ब्रम्हांड की उत्त्पत्ति प्रकृति से हुई है जो जड़ है , इसमें जो
चेतन (कोंसियंस ) है –उसे पुरुष कहा गया
है – इनके मिलने से ही सारे जीव जगत की रचना हुई है , द्वेतवाद –प्रकृति को जड़ व्
पुरुष को चेतन मानना इसका आधार है . प्रकृति तीन तत्वों से मिलकर बनी है –सत्व ,रज
व् तम . इनकी साम्य अवस्था में कोई क्रिएशन नहीं होता है परन्तु जब इनमें से कोई
एक डोमिनेंट होता है मतलब इनका साम्य बिगड़ता है उसी से जगत की उत्त्पत्ति होती है .
पुरुष एक न होकर अनेक है जबकि प्रकृति सारे ब्रह्माण्ड में एक ही हैं . सांख्य के
अनुसार प्रकृति ही से इस जगत की निर्माता है जिसे स्त्री माना गया है .
सिन्धु घाटी से जो अवशेष मिलते हैं 5000 साल पुराने करीब वो
भी योग साधक की शिलाएं व् मातृदेवी ,मात्रुसात्मक समाज के ही प्रमाण है , ऐसे भी
अनुमान लगायें गए हैं की योग आसनों की
शुरुआत महिलाओं ने की हैं .हड्डप्प्पा संस्कृति 2000 सालों तक बिना युद्ध के रहने
वाली सभ्यता दिखलाई पड़ती है ,ये योग से संभव हो पाया और इसके प्रमाण से इसकी खुदाई
में पाई गयी शिलाएं ,मोहरें, नगर बनावट इत्यादि .योग एक अनुशासन है जो यहाँ की
जीवनशैली में देखने को मिलता है क्यूंकि किसी केन्द्रीय सत्ता के प्रमाण यहाँ नहीं
मिलते हैं .
बोद्ध व् जैन धर्म में भी योग के जुड़ाव पायें
जाते है , जिन मुद्राओं में जैन व् बोद्ध की शिलाएं मिली है वो योग की अद्भुत
ज्ञान मुद्राएँ है जो योग की चरमोत्कर्ष अवस्था है . योग की ध्यान व् समाधी बोद्ध धर्म के निकट है व् यम –नियम जैन धर्म से निकट प्रतीत होते हैं.
खजुराहो के मंदिर विभिन्न योग मुद्राओं का अद्वितीय नजारा हैं . गुरु गोरखनाथ एक हठ योगी थे , उनके गुरु थे
मत्स्येन्द्रनाथ और इनके गुरु आदिनाथ अर्थार्थ शिव. नेपाल में मत्स्येन्द्रनाथ के मंदिर में आज
भी आदिनाथ की पूजा की जाति है और ये मत्स्यासन मधुमेह रोगियों के लिए वरदान है ,
गुरु गोरखनाथ से प्रभावित होकर ही 800-
1000 इ.पु. योगी स्व्तामा राम द्वारा रचित “हठयोगप्रदीपिका” में 84 आसन /मुद्राओं
का जिक्र है –उन्ही को आज हम योग के रूप में जानते हैं ,करते हैं , योगिनी मंदिर ,
खजुराहो के मंदिर भी इन्ही आसनों /मुद्राओं से भरे हुए हैं . मुक्ति इसी जीवन में
संभव है इसीलिए इस शरीर को बलशाली व् फिट रखने के लिए योग की महिमा और बढ़ जाति है .
जहाँ एक ओर समूचा विशव व् उसका दर्शन दुनिया को जितने ,मारकाट मचाने
वाले को वीर कह रहा था , वहीँ हिन्दू दर्शन में अपने चित्त ,अपनी इन्द्रियों पर
जितने को महावीर माना गया है . इसलिए जैन धर्म के २४वे थ्रीथंकर को हम भगवान
महावीर के नाम से जानते हैं –मतलब जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय हासिल की हो .
ये योग व् इसका दर्शन भारतभूमि में ही सिमट कर रह जाता ,अगर स्वामी
विवेकानंद १८९३ में दुनिया को हमारे दर्शन से परिचित ना करवाते, ऐसा नहीं है इससे
पहले दुनिया योग दर्शन/हिन्दू दर्शन को जानती
ही नहीं थी ,पर इसको एक नयी पराकाष्टा तक पहुँचाने में स्वामी विवेकानंद जी का
विशेष योगदान है . इनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ही बड़े योगी थे, कोलकाता के
काली के मंदिर में ये समाधी किया करते थे ,इन्हें ऐसा करने में अड़चन आ रही थी , तब
इनके गुरु अवदूत तोतापुरी ने इस अड़चन का कारण पूछा तो परमहंस जी ने कहा – जैसे ही
समाधी लगाना शुरू करता हूँ ,काली माता मेरे जेहन में आ जाति है और मेरे ध्यान उचट
जाता है , अवदूत तोतापुरी ने कहा – तलवार उठाओ और गिरा दो ये प्रतिमा , पर परमहंस जी
ऐसा करने में खुद को असमर्थ पा रहे थे , तब स्वामी अवदूत जी ने स्वामी परमहंस जी माथे पर
भभूत से तिलक के समान चिन्ह लगाया और स्वामी परमहंस जी ने हठ समाधी को प्राप्त
किया.
आप ये जानकर आश्चर्य से भर जाओगे की “ अहिंसा परमो धर्म” जो जैन धर्म
का मूल वाक्य है ,ये कहाँ से आया है –ये कथन हमारे एक प्रमुख महाकाव्य –“महाभारत”
से लिया गया है . महाभारत के ही गीता में योग को कर्म से जोड़ते हुए कर्मयोग की बात
की गई है .
4000 साल पहले के मानव के वर्णन किसी किताब में हैं तो वो है –ऋग्वेद
, ऋग्वेद में जो ऋचा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है – गायत्री मन्त्र ,उसमें भी ध्यान
लगाने की बात की गई है , सविता का ,क्रिएटिविटी का , धीमहि धियो यो न . आज से
हजारो साल पहले उपनिषदों में कहा गया है की हमारी इन्द्रियों को बहार की ओर बनाया
गया है इसलिए हम सब ज्यादा बाहर क्या हो रहा है ,उसी का अवलोकन करते रहते हैं ,उसी
सुख व् दुःख का अनुभव करते हैं , आज हम समानता व् लोकतंत्र की बात करते हैं पर
हजारों साल पहले से ही सांख्य व् योग
दर्शन तो सभी जीवों की चेतना को एक स्वतंत्र इकाई मानता है और हर कोई अलोकिक है ,हर
कोई देव है ,भारत में जितने लोग ,उतने देव –ये है लोकतंत्र की अध्यात्मिक चरमसीमा .
योग ही वो साधन है जिससे हम अपने माइंड को
नियंत्रित कर सकते हैं .
विज्ञान की तमाम उपलब्धियों
के वावजूद हम मानव के समस्याओं –दुःख का समाधान नहीं खोज पायें हैं ,एक नजरिये से
देखें तो इसको हमने बढ़ाया ही है ,क्या आज का मानव ,पहले के मानव से ज्यादा खुश है ?
इस वीडियो में समय मर्यादा को ध्यान में रखते हुए योग पर चर्चा की है
,आप कमेन्ट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया शेयर करकर इस चर्चा को और बढ़ाएं , और मानव
व् ब्रहमांड के अस्तित्व के सवाल आपके मन में उथल –पुथल मचाते हैं तो चैनल को
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भरपूर रखिये .जय हिन्द ,जय भारत.
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