जानने की इच्छा

जानने की इच्छा ,जिज्ञासा मानव की मूल प्रवर्तियों में से एक है । किसी नयी वस्तु को जानने ,समझने के  कौतूहल ने ही मानव सभ्यता की यात्रा को इतिहास से वर्तमान तक का सफर करा दिया । भाषा की आवश्यकता एवं प्रांभिक उपयोग भी प्रश्न पूछना ही रहा होगा। बच्चो के बाल्यकाल में इस जिज्ञासुपन हम सबने अवश्य अनुभव किया होगा ,वस्तुओं को छूकर देखना ,उठाना ,फेंकना ,चखना ,नयी वस्तु के अनुराग में तो बालक अपना रोना ,खाना भी छोड़ देते हैं। नए जानवरो ,नयी आवाजों ,नए प्रतीको का आकर्षण किस बच्चे को स्कूल जाने से पहले ना रहा होगा ? स्कूल जाने के बाद या कुछ दिनों तक स्कूल में बिताने के बाद हम बच्चो का वर्गिकरण कर पाते हैं की कुछ बच्चे बहुत प्रश्न पूछते हैं से कुछ बिल्कूल प्रश्न पूछते ही नहीं । जैसे –जैसे हम आगामी कक्षाओं में बच्चो के प्रश्न पूछने का अवलोकन करते हैं मानव अपनी मूल प्रवर्ति से विरत होता दिखाई देता है ।
हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और इससे भी ज्यादा आधुनिक समाजीकरण मानव की सबसे विलक्षण क्षमताओं में से एक प्रश्न पूछना ,अज्ञात को समझना के बाधक के समान हो गए हैं । बच्चो में इस प्रवर्ती को बनाए रखना आधुनिक शिक्षकों के लिए गंभीर विषय बन गया है । प्रश्नो को उनके उत्तर ही जीवित रखते हैं । आरंभिक उत्तर अगले प्रश्नो की प्रष्ठभूमि बनते हैं ,और यही प्रश्न –उत्तर की श्रंखला खोज ,अनुसंधान तक पहुँचते हैं । प्रश्न –उत्तर की प्रकीर्या रेखिक न होकर चक्रीय है , हर उत्तर प्रश्न को सवारता है , फिर नया प्रश्न और बेहतर उत्तर की ओर ,यह एक सतत कभी न खत्म होने वाली पृकिरया  है । हाँ जैसे –जैसे ये सिलसिला बढ़ता चला जाता है ,प्रश्नो की ,उत्तरो की जटिलता बढ़ती चली जाती है ,हमे और अधिक प्रयासो की जरूरत होती चली जाती है ,प्रश्न न बन पाने ,उत्तर न मिल पाने पर हमारे प्रयासों में शिथिलता आती चली जाती है ,और अपनी –अपनी क्षमताओं के अनुरूप हम इस सतत कार्य से अपनी भूमिका को हटा लेते हैं ।
जिज्ञासा को जगाए रखने के लिए खुद का जिज्ञासू होना , बच्चो की विभिन्नताओं के अनुसार अपने प्रश्नो व उत्तरों में विभिन्नताओं का समायोजन कर पाना , विषय –वस्तू की ठोस व व्यापक समझ  ही शिक्षक को ऐसा वातावरण गढ़ने में सहायक हो सकते हैं । ये बात तीन पक्तियों में कही तो गई पर जीवंत कर पाने में बड़े पुरुषार्थ की जरूरत है । पहला प्रश्न संभवत : क्या ही होता है ? इससे पार पा जाओगे तो क्यूँ को भी संभालना है , और इन सबके बाद कैसे । क्या ,क्यूँ को अच्छे से उत्तर करने पर कैसे की डगर कुछ सरल हो सकती है । वैसे इन क्या ,क्यूँ ,कैसे में कोई क्रमबधता नहीं होती है ,कोई भी अनायास कभी भी बच्चो के दिमाग में आ जाता है ,ये तो शिक्षक को तय करना हैं कब और कैसे इन प्रश्नो को और अगले चरण तक ले जाते हुए इनका जबाब दिया जाये।
स्कूल प्रैक्टिस के समय गत वर्ष जब मैंने गणित पर काम करने की योजना बनाई थी , कक्षा –कक्ष में उस योजना तक पहुँचते हुए कई योजनाएँ स्वत : ही बनती चली गई थी ,बच्चो के प्रश्नो को अपने मनचाहे प्रश्नो को लाने की जो कोशिश हम करते हैं वो भी कुछ बेमानी सी है । बच्चो का सीखना –सिखाना समग्रता में ही हो पाता है ,ये बात कुछ खास अनुभवों में से है जो मैंने स्कूल प्रैक्टिस करते हुए जाना ।


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