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shiksha

जब जरूरते लालच न थी , हमारी इच्छाएं बौनी थी , धरती के संशाधन ज्यादा थे , हमारे झगड़े सच्चे थे , हमारी दोस्ती पक्की थी , हाँ , वो एक दौर था , जब हम मानव ज्यादा थे , हमसे छीन लिए हमारे विचार , दे दिये नए सपने , प्रतिस्पर्धा ने छीन लिए हमारे सारे रिश्ते , क्यूँ एक दिमाग में उपजी अवधारणा को हमने सब पर थोप दिया ? रीति-रिवाज , परंपरा , सभ्यता ........  और न जाने क्या –क्या इन नामों को तो जिंदा रखना जरूरी समझा , पर इनकी कीमत में मानवता को ही दे डाला , समाज ने इसको रचा , या इसने समाज को इसने बना डाला , शिक्षा – क्यूँ ये सब तूने कर डाला ।